- बूंखाल कालिका देवी, उत्तराखंड में माँ काली का जाग्रत स्वरूप
- एक समय पशुबलि के लिए था प्रसिद्ध
पौड़ी : पौड़ी गढ़वाल के राठ क्षेत्र में लगने वाला प्रसिद्ध बूंखाल कालिंका मेला कल यानी शनिवार 3 दिसंबर को आयोजित किया जायेगा। थलीसैंण ब्लॉक के अंतर्गत लगने वाले प्रसिद्ध बूंखाल मेले को लेकर तैयारियां पूरी हो गई हैं। सुरक्षा के लिहाज से एसएसपी ने मेला क्षेत्र को छावनी में तब्दील कर दिया गया है। मेले के शुभारंभ कार्यक्रम में क्षेत्रीय विधायक, कैबिनेट मंत्री डॉ. धन सिंह रावत बतौर मुख्य अतिथि शिरकत करेंगे।
राठ क्षेत्र के ग्रामीणों की आस्था का बूंखाल मेला एक समय पशुबलि के लिए पूरे गढ़वाल क्षेत्र में विख्यात था। हालंकि अब इस मेले को साप्तविक मेले का रूप दे दिया गया है। परन्तु बावजूद इसके अभी भी मेले की भव्यताकम नहीं हुई है। इस मंदिर में सदियों से चली बलि प्रथा, बूंखाल मेला इस क्षेत्र की हमेशा से पहचान रही है। साल 2014 से इस मंदिर में सदियों से चली आ रही बलि प्रथा को बंद कर दिया गया है। अब पूजा-अर्चना, आरती, डोली यात्रा, कलश यात्रा और मेले के स्वरूप की भव्यता इसकी परिचायक है।
जिला प्रशासन से मिली जानकारी के अनुसार क्षेत्रीय विधायक और काबीना मंत्री डा. धन सिंह रावत मुख्य अतिथि के रूप में शिरकत करेंगे। मेले को भव्य और आकर्षक बनाने के लिए जिला प्रशासन की ओर से बहुद्देशीय शिविर भी लगाये जाएंगे। जिसमें लोगों को सरकार की विभिन्न योजनाओं की जानकारी दी जाएंगी।
बूंखाल कालिका की कहानी –
किंवदंतियों के अनुसार बूंखाल कालीका माता का अवतरण 400 साल पूर्व पौड़ी जिले के कन्डारस्यूं पट्टी के चौपड़ा गावँ में एक शिल्पकार परिवार में लोहार वंश की एक कन्या के रूप में हुवा था। एक मेंडला के जंगल मे गाय चराते हुए, बच्चों ने खेल खेल में इस कन्या को गड्ढे में दबा कर ऊपर से मिट्टी डाल दी। दो तीन दिन खोजबीन के बाद इस कन्या का कहीं भी पता नही चला तो बाद में वह कन्या अपने माता पिता को स्वप्न में आई और उसने बताया कि उसे मेंडला के जंगल मे गड्ढे में दबाया है। अब वह कालिका बन चुकी है , और उसे बूंखाल की भूमि में काली रूप में स्थापित किया जाय। कहा जाता है कि इस कन्या की मंगनी ( सगाई ) ग्राम नलई के कल्या लोहार बंश में हो चुकी थी, इसलिए कन्या ने बूंखाल चुना, वहां से नलई गावँ पर भी नजर पड़ती है।
जबकि कुछ लोगो की मान्यता है, कि मेंडला में हरियाली देवी का वास होने के कारण कालिका को वह स्थान छोड़ना पड़ा। मान्यता है, कि माँ काली के कहने पर देवी की स्थापना एक गड्ढे में कई गई है। जहां से किसी भी विपत्ती आने से पूर्व वो क्षेत्रवासियों को आवाज देकर सतर्क कर देती थी। कहते हैं गोरखा आक्रमण के समय देवी ने आवाज देकर सूचना दी तो। गोरख़ालियों ने मूर्ति की गर्दन काटकर अपने साथ नेपाल ले गए और धड़ को उसी गड्ढे में उल्टा दबा दिया। कहते हैं तबसे देवी का आवाज देना बंद हो गया ।
मंदिर में पूजा-अर्चना की जिम्मेदारी गोदा के गोदियालों को दी गई, जो सनातन रूप से आज भी इसका निर्वहन कर रहे हैं। मंदिर वर्षभर श्रद्धालुओं के लिए खुला रहता है। यहां विकासखंड खिर्सू, पाबौ, थलीसैंण, नैनीडांडा का मुख्य केंद्र भी है।