‘पांडवाज’ का संगीत और अजय के सुर
(वरिष्ठ पत्रकार चारु तिवारी की कलम से)
पिछली 16 सितंबर, 2023 को लोक कवि हीरासिंह राणा की जयन्ती थी। उनके प्रशंसकों ने अपने-अपने तरीके से उन्हें याद किया। दरअसल, हीरासिंह राणा की कविताएं और गीत ही उनकी पूंजी हैं। उन्हें जानने के संदर्भ हैं। उन्हें उसी रूप में, उन्हीं के भाव और बिंब के साथ प्रस्तुत करना इसलिए भी चुनौतीपूर्ण होता है क्योंकि उनकी रचनाओं में जो गहराई और शब्दों के मोती हैं उन्हें बिनना हर किसी के लिए आसान नहीं है। राणा जी अब इस दुनिया में नहीं हैं। उनके गीत हैं। उनकी जयन्ती वर उनके शिष्य और गायक अजय ढौंडियाल ने उन्हें एक गीत समर्पित किया है। उत्तराखंड के संजावली गीतों में एक पौराणिक आख्यान गीत है- ‘कै संध्या झूली रै, हो भागवाना नीलकंठा हिमाला…।’ यह गीत हमारे पौराणिक लोक आख्यानों में मौजूद रहा है। जागर, हुड़की बोल और सांध्य गीतों में गाया जाता रहा है। हीरासिंह राणा ने इसका पुनर्लेखन किया था। बहुत सुंदर संगीत के साथ गाया भी था। इसी गीत को जब ‘पांडवाज’ के नये संगीत के साथ अजय ने गाया तो लगा कि हिमालय की इस संध्या के साथ जिसमें उत्तराखंड का भूगोल, इतिहास और सांस्कृतिक वैभव शामिल रहा है अपनी यात्रा के कई और दशकों तक का रास्ता बना रहा है। यह एक तरह से हस्तांतरण है नई पीढ़ी के लिए। उस पीढ़ी के लिए जो अपनी परंपराओं को नये संदर्भ और अर्थो में समझना चाहती है।
‘कै संध्या झूली रै…’ को इस बार संगीत दिया युवा सांस्कृतिक चेतना के स्थापित हस्ताक्षर ‘पांडवाज’ ने। ‘पांडवाज’ ने जिस तरह से हमारी पुरानी लोकविधाओं को नये रूप में रखने का काम किया है, वह अद्भुत है। हीरासिंह राणा के गीतों के मर्म को जानना और उन्हीं की आवाज में गाने का हुनर सिर्फ अजय ढौंडियाल के पास ही है। इस गीत को उन्होंने जिस मनोयोग से गाया है, उससे लगता है कि जिस संध्या की वह बात कर रहे हैं उसे हम अपनी आंखों के सामने देख पा रहे हैं। उस अलौकिक सांझ को देखने-समझने की जो दृष्टि हीरासिंह राणा ने पाई उसके विस्तार का रास्ता अजय को पता है। या कह सकते हैं वह ‘ज्योति’ राणाजी ने अजय को ही चुपके से दे दी। कभी-कभी यह बहुत चौंकाता है कि अजय जो मूल रूप से गढ़वाल से होने के बावजूद जिस तरह कुमाउनी शब्दों और भावों को पकड़ते हैं, वह किसी भी कलाधर्मी का सबसे बड़ा गुण है, जो उन्हें विलक्षण बनाता है।
‘पांडवाज’ के संगीत निर्देशन में अजय के इस गीत को सुनते ही पहले कुछ अटपटा सा लग रहा था। जिस धुन में हम उसे सुनते रहे हैं, हम जैसे लोगों के लिए यह नया और अनोखा था। लग रहा था कि इसमें कई जगह ठहराव है। कुछ अटक-सा रहा है। लेकिन जब पूरी संगीत प्रक्रिया और उसके सुर समन्वय को देखते हैं तो यह अद्भुत बना है। अजय ने शुरू में जो आलाप लिया है, वह बताता है कि उनमें किसी गीत के गहरे भावों को पकड़ने की कितनी विलक्षण क्षमता है। किसी भी गीत में आवाज या सुर के साथ चलना तो होता ही उसे भाव के साथ डूबकर गाना उसकी लौकिकता को बढ़ाता है। इस गीत की अंतराओं में जिस तरह संगीत के प्रयोग हुए हैं और कोरस का इस्तेमाल किया गया उससे गीत बहुत ही कर्णप्रिय लग रहा है। पता नहीं क्यों हर अंतरा के अंतिम शब्द को छोड़ते समय के ठहराव को पचा नहीं पा रहा हूं। जब आखिरी शब्द छूट रहा है तो शायद इसमें इतना बड़ा अंतराल नहीं होना चाहिए- ‘हि….मा…ला…।’ शायद यह ‘हिमाला…’ की तरह ही छूटता तो शायद ज्यादा अच्छा होता। हो सकता यह मेरे पूर्वाग्रहों के कारण भी हो। लेकिन मैं ‘पांडवाज’ का आभार व्यक्त करता हूं कि उन्होंने एक खूबसूरत गीत को बहुत अच्छे अंदाज में प्रस्तुत किया। अजय भाई को बधाई और शुभकामनाएं कि वे इसी तरह राणा जी के गीतों को वह गाते रहें।