देहरादून: मितेश्वर आनंद नई पीढ़ी के उन प्रशासनिक अधिकारियों में से हैं जिन्होंने लेखन से समाज को देखने की खिडकी खोली है। मितेश्वर का नया संग्रह आया है ‘स्टेजिंग एरिया’। यह उनकी दूसरी पुस्तक है। पहली पुस्तक ‘हेंडल-पेंडल’ उनके बचपन की यादें हैं जो छोटी-छोटी कहानियों के रूप में आई है। नई पुस्तक ‘स्टेजिंग एरियाकोविड के दौरान के उनके अनुभवों पर है। पहले तो मितेश्वर को बहुत-बहुत बधाई कि वह अपनी रचनात्मक यात्रा को बनाये हुये हैं। मितेश्वर के लेखन का एक पहलू यह भी है कि वह प्रशासनिक क्षेत्र में हैं। बिक्री कर अधिकारी हैं। नई पीढ़ी में प्रशासनिक पदों पर काम कर रहे लोग लिख रहे हैं यह बहुत सुखद है। बहुत रूढ माने जाने वाले इस क्षेत्र में बहुत सारे लोग न केवल लिखते रहे हैं, बल्कि साहित्यिक क्षेत्र में उन्होंने बड़ा मुकाम भी बनाया है। राग दरवारी के लेखक श्रीलाल शुक्ल, सुपरिचित कवि अशोक वाजपेयी, लीलाधर जगूड़ी के अलावा हमारे उत्तराखंड के आईपीएस रहे गिरिराज साह, चमनलाल प्रद्योत, पूर्व पुलिस महानिदेशक अनिल रतूड़ी, अमित श्रीवास्तव, आईएएस ललित मोहन रयाल, हिमांशु कफल्टिया आदि ने साहित्य में अपनी प्रभावी दस्तक दी है। इसी श्रृंखला में मितेश्वर नया नाम है। मितेश्वर एक प्रतिबद्ध अधिकारी होने के साथ पहाड़ को बहुत संवेदन दृष्टि से देखते हैं। उन्होंने अपने प्रशासनिक दायरे के बाहर अपनी दुनिया बनाई है। पर्यावरण सुरक्षा, महिला सशक्तीकरण, शिक्षा और स्वरोजगार पर उन्होंने कई मंचों के साथ जुड़कर बहुत काम किया है। यही वजह है कि जब भी वे सामाजिक सवालों के साथ खड़े होते हैं उनके अंदर आम लोगों के लिए कुछ करने का भाव होता है। उन्होंने सरकारी सेवा में आने से पहले कारपोरेट के बड़े नामों के साथ काम किया है, इसलिए उन्हें दुनिया के दूसरे हिस्से को देखने की दृष्टि भी है।
मितेश्वर ने अपने पहले कहानी संग्रह ‘हेंडल-पेंडल’ में अपने आसपास के परिवेश को जोडकर बहुत छोटी-छोटी घटनाओं को कहानियों के रूप में ऐसा गूंथा कि वह लोगों को अपने साथ घटित लगने लगी। बहुत सहजता से लिखी गई इन छोटी कहानियों को पाठकों ने काफी पसंद किया। उनका नया संग्रह कोविड के दौरान एक अधिकारी के रूप में उनके अनुभवों का लेखा-जोखा है। कोविड के दौरान लोगों ने जिस तरह का मंजर देखा और जिंदगी को समझने की एक नई समझ दी उस दौर में प्रभावितों की मदद में लगे एक अधिकारी ने कैसे मानवीय संवेदनाओं को दखने की दृष्टि पायी वह अद्भुत है। इन अनुभवों को उन्होंने नाम दिया- ‘स्टेजिंग एरिया’। यह एक ऐसा मंच, ऐसा कार्यक्षेत्र है जहां से आप अपने को काम करते हुये दुनिया को देखने का खुला आकाश पाते हैं। जिस दौर में जीवन का संकट हो और आपके सामने कई ऐसे मामले आ रहे हों जिनकी आपको तुरंत मदद करनी है। तब आप एक संवेदनशील इंसान के साथ उस मशीनरी के पुर्जे भी है, जिस पर कई सारी बंदिशें और औपचारिकताओं की परत भी जमी है, ऐसे में दोनों के साथ न्याय कर पाना मुश्किल होता है। मितेश्वर के अनुभवों को पढ़कर लगता है कि वह यह संतुलन बनाने में कामयाब रहे हैं।
मितेश्वर 22 मार्च, 2022 को कोविड के उस सरकारी अभियान से जुड़े जब देश में लाॅक डाउन की घोषण हो गई। लोगों के सामने अचानक मुश्किले खड़ी हो गई। विशेषकर अपने घरो से बाहर रह रहे लोगों के लिये इससे बाहर निकलने की चुनौती थी। इसका असर न केवल शारीरिक था, बल्कि मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने वाला भी था। मितेश्वर ने उस तुन के पेड़ का जिक्र किया है जो कोविड के दौरान उनका ‘स्टेरिंग एरिया’ में उनके साथ खड़ा था। ‘तुन का पेड़ हमारे लिए खुला दफ्तर होने के अलावा आशीर्वाद रूपी कवच था। प्रकृति हम कोरोना वारियर्स की शरणस्थली बनी थी। कितना विचित्र संयोग था कि प्रकृति को अपने स्वार्थ के लिये नियंत्रित करने के अवांछित मानव प्रयास ने इंसान को कोविड के रूप में एक बड़ी सजा और चेतावनी दी। उसी प्रतिनिधि के रूप में तुण का यह पेड़ हमें अपनी ममतामयी छांव दे रहा है। अपने कार्यक्षेत्र के तुन के पेड़ को अपनी प्रतिबद्ध सेवा का प्रतीक बनाते हुये उसे पर्यावरण संरक्षण के साथ जोड़कर उस विचार को व्यापक फलक दिया है, जो हमेशा प्रकृति के बहुउपयोगी चरित्र को बनाये रखने परंपरागत समझ को बनाये रखने का हिमायती रहा है।
अपने अनुभव साझा करते हुये मितेश्वर ने ‘गरिमामयी नेपाली दंंपति’ का जिक्र किया है जो इस भी भीषण संकट के दौर में अपने देश नेपाल जाने के लिये उनके राहत स्थल पर आते हैं। यह दंपति रानीखेत के किसी ग्रामीण क्षेत्र में मजदूरी का काम करते थे। गढ़वाल के बैजरो क्षेत्र से नेपाली मजदूरों को उनके देश ले जाने के लिये बस आई। इस दंपति ने भी इस बस में अपने घर जाने का निवेदन किया। हमने उनकी उस बस में जाने की व्यवस्था की। उस दंपति ने अपने पिट्ठू से कंडकटर को किराया देने के लिये पैसे लकड़ी के सहारे जमीन पर रख दिये। कंडक्टर ने सैनेटराइज कर उन पैसों को अपने बैग में रखा। आम लोगों में भी उस समय तक इस तरह के बचाव की समझ आ गई थी। बहुत कष्ट में रह रहे दंपति ने हम सबका धन्यवाद किया।
‘स्टेजिंग एरिया’ में हर किस्म के अनुभव हैं। यह एक ऐसी जगह का रूप ले चुकी थी जहां अब अच्छा—बुरा कुछ नहीं होता। हर व्यक्ति की अपनी तरह की व्यथा, अपनी तरह दिक्कते हैं। कई को राहत मिलने से कृतज्ञता का भाव है तो कई बिल्कुल इसके उलट। कई लोग उस समय शिकायतों के साथ धमकी भी दे जाते थे। हमने उनका बुरा नहीं माना। एक बुर्जुग ने कहा कि आपने मेरी बहू को क्वारंटीन क्यों किया, जबकि हमारे पड़ोस में आई महिला को नही किया गया। मैं आप लोगोंं की शिकायत ऊपर तक करूंगा। मीडिया में जाऊंगा। हमने बुर्जुग को समझाया कि आपकी पड़ोस में आयी बहू का दुधमंहा बच्चा था इसलिये ऐसा हुआ। अगर आप पहले यह जानकारी ले लेते तो आपको यहां आने की तकलीफ नहीं उठानी पड़ती। बुजुर्ग संतुष्ट होकर अपने घर गये।
मितेश्वर ने उस दौर में मुसीबत में फंसे बीस मजदूरों के दल का जक्र किया है जो नैनीताल जनपद के ओखलकांडा क्षेत्र से कई किलोमीटर पैदल चलकर अपने घर बदायूं जाने का प्रयास कर रहे थे। उनमें बड़ी संख्या में महिलायें और दुघमुंहें बच्चे भी शामिल थे। उनके पास खाने को कुछ नहीं था। उस दौर में कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और सामाजिक संस्थाओं ने जिस संवेदशीलता के साथ लोगों के साथ खड़े होने का जज्बा दिखाया वह अविस्मरणीय है। रामनगर के युवा सामाजिक कार्यकर्ता पीयूष मित्तल ने इनके लिये बिस्कुट, दूध, ब्रेड आदि की व्यवस्था की। हमारे साथी मयंक मित्तल और रवीन्द्र चौरसिया, जोनल मजिस्टेट केसी उनियाल और उपजिलाधिकारी ने बहुत समझ के साथ इन्हें बदायूं भेजने की व्यवस्था की। जिस ठेकेदार के माध्यम से इन मजदूरों का लाया गया था उसने उनके साथ ऐसा व्यवहार किया कि मजदूर कहने लगे— ‘हमें कुछ नहीं चाहिये। हम कम से कम अपने घर पर मरना चाहते हैं।’
किताब में कुछ ऐसे वाकयों का जिक्र भी जिसमें शादी के बाद दूल्हा—दुल्हन को क्वारंटीन करना पड़ा। ऐसी भी घटनायें हुई कि लोग क्वारंटीन न किए जाने के लिये किसी हद तक जा सकते थे। दिल्ली से आई एक महिला ने अपनी बेटी को क्वारंटीन सेंटर न भेजने के लिये धमकी दी कि अगर ऐसा हुआ तो वह अपने पर आग लगा लेगी। उसका कहना था कि उसकी बेटी को कोविड नहीं है। आप जबरदस्ती उसकों क्वारंंटीन करना चाहते हो। बाद में वह पॉजटिव निकली तो महिला को हमारी बात मानकर अपनी लड़की को क्वारंटीन सेंटर भेजना पड़ा। हमारी सामाजिक संरचना और मजबूरियां लोगों का कितना मजबूर करती हैं इसका जिक्र भी कई जगह किताब में है। एक घटना के अनुसार रामपुर निवासी एक व्यक्ति उत्तराखंंड में रामनगर के पास काम करता था। उसका भाई भी उसके साथ रहता था। उसकी शादी भाई की साली के साथ होनी तय हुई थी तो करोना आ गया। आपसी सहमति से तय हुआ कि रामनगर में जीजा के यहां शादी कर दी जाये। इसके लिये लड़की का जीजा और उसका भाई लड़की को रामनगर तक छुपते—छुपाते पैदल ले आये। यहां उन्हें पकड़ लिया गया और स्टेंजिग एरिया में रखा गया। लड़की का आधार कार्ड रामपुर का था। रामपुर रेड जोन में था। लड़की को क्वारंटीन किया जाना था। यह सुनकर लड़की की मां गश खाकर गिर गईं। बहुत कमजोर आर्थिक स्थिति वाले परिवार ने अपनी बिरादरी और लोगों के सहयोग से इस शादी की व्यवस्था की थी। हमारे साथ मुश्किल यह थी कि लड़की का टेस्ट कराना था। इसके लिये उसे काशीपुर में प्राइवेट अस्पताल में यह टेस्ट कराना था। इसमें पांच हजार रुपये लगने थे। लड़की की मां ने कहा कि पांच हजार रुपये तो क्या उनके पास तो पांस सौ रुपये भी नहीं हैं। हमने तो बड़ी मुश्किल से इसकी मंदिर में शादी का इंतजाम किया है। इस बीच फिर संवेदनाओं ने काम किया। हमारे साथी रवीन्द्र चौरसिया ने कहा कि हमें इनके लिये पैसे की व्यवस्था करनी चाहिये। सबने मिलकर पैसे की व्यवस्था की और काशीपुर आने—जाने के लिये गाड़ी उपलब्ध कराई। संयोग से लड़की का टेस्ट निगेटिव आया। सामाजिक संगठन पायनिर्यस की सहायता से उस लड़की के लिये कुछ कपड़े और उपहारों से उसकी सहायता कर शादी कराई।
मितेश्वर आनंद ने कोविड के दौरान अपने कार्यक्षेत्र यानि ‘स्टेजिंग एरिया’ में इस तरह के कई अनुभवों को साझा किया है जो मुसीबत के समय अलग—अलग रूपों में सामने आती हैं। उसमें हमारी कर्तव्यनिष्ठा, त्वरित सहायता करने का भाव, सबको एक भाव से देखने की दृष्टि और बहुत संजीदगी से लोगों को सुनना और उनकी समस्याओं का निराकरण करना न केवन बड़ी चुनौती होती है, बल्कि एक मनुष्य के तौर पर हमारी मानवीय संवेदनाओं का परीक्षण भी करती हैं। मितेश्वर ने अपनी पुस्तक ‘स्टेंजिंग एरिया’ में भले ही एक अधिकारी के रूप में अपने कार्यक्षेत्र के अनुभवों को संकलित किया हो, लेकिन इस पुस्तक में लिखें गये अनुभव सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले लोगों और प्रशासन की ओर से व्यवस्था में लगे उन अधिकारियों के लिये भी उपयोगी हो सकती है, जिन्हें इस तरह की हालातों से कई बार सामना करना पड़ता है।
पुस्तक की शुरुआत में कोविड के दौरान प्रयुक्त शब्दावली को दिया गया है जिसमें कोविड, क्वारंटीन, होम क्वारंटीन, फैसिलिटी क्वारंटीन, रेड जोन, आॅरेंज जोन, आरटी—पीसीआर, ग्रीन जोन, रैपिड टेस्ट, पीपीई किट, जोनल मजिस्ट्रेट, नोडल अधिकारी कोविड— 19 जैसे शब्द शामिल हैं। पुस्तक के अंत में उन सभी साथियों के नाम शामिल किये गये हैं जो इस ‘स्टेजिंग एरिया’ में उनके साथ रहे। इनमें पीजी कॉलेज रामनगर, संतोष बुधानी, चन्द्रप्रकाश रावत , हेम खुल्बे (चिकित्सा विभाग), मयंक मित्तल (नोडल अधिकारी स्टेजिंग एरिया), डा. अनुपम शुक्ला (प्रवक्ता जीजीआईसी क्यारी), रमेश पांडे (सहायक अभियंता पीडब्ल्यूडी), कोैशिक मिश्रा (जीआईसी रामनगर), रवींद्र चौरसिया ( कंटोल रूम जोनल इंजार्च), डा. आशुतोश त्रिपाठी (चिकित्सा अधिकारी), डा. शबाना, राजेन्द्र सिंह राणा, अभिषेक मित्तल, ग्रेट वालिया (एआरटीओ रामनगर) , मुकेश नेगी (कांस्टेबल थाना रामनगर) , नागेन्द्र रावत ( पीजी कालेज रामनगर) शामिल हैं।
पुस्तक का नाम : स्टेजिंग एरिया
लेखक : मितेश्वर आनंद
प्रकाशक : काव्यांश प्रकाशन, ऋषिकेश