भगवान शिव शंकर के देश ही नहीं पूरे विश्वभर में एसे कई प्राचीन मंदिर हैं जिनका इतिहास रामायण, महाभारत आदि से जुड़ा हुआ है। उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से 6 किलोमीटर दूर पहाड़ की गोद में विराजमान भगवान टपकेश्वर स्वयंभू शिवलिंग मंदिर की प्राकृतिक छटा निराली है। जहां पहाड़ी गुफा में स्थित यह स्वयंभू शिवलिंग भगवान की महिमा का आभास कराती है तो वहीं मंदिर के पास से गुजरती टोंस नदी की कलकल बहतीं धाराएं श्रद्धालुओं को द्रोण और अश्वत्थामा के तप और भक्ति की गाथा सुनाती है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार, प्राचीन काल में देवताओं के प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान शिव इस स्थान पर देवेश्वर के रूप में दर्शन दिए थे। महाभारत युग में द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा इस जगह पर बैठकर भगवान शिव की घोर तपस्या की थी। जिस वजह से भगवान शिव ने प्रसन्न होकर गुफा से दूध की धार बहने का वरदान दे दिया। लेकिन कलयुग के आते-आते पुनः इस स्थान से दूध के अलावा जल टपकने के कारण इसे टपकेश्वर के नाम से लोग जानने लगे।
टपकेश्वर मंदिर देहरादून की प्राचीन मंदिरों में से एक है। आपको बता दें कि यह मंदिर पहाड़ों की गोद में बसा हुआ है। जिस वजह से यह पर्यटको के लिए आकर्षण का केंद्र है। यह मंदिर में सडक से नीचे सीढीओं द्वारा जाया जाता है सीढीओं के सख्या लगभग 300 है। इस मंदिर सभी देवी देवताओं की प्रतिमा है। इस मंदिर में माता वैष्णों का भी मंदिर बनाया गया है इसमें एक प्राकृतिक गुफा है जो मां वैष्णों देवी स्थल का अनुभूति कराती है। इस मंदिर में भगवान हनुमान जी की भी एक विशाल मूर्ति है जो कि इस मंदिर का मुख्य आक्रर्षण है। इस मंदिर में एक रुद्राक्ष शिवलिंग भी है जिसमें विभिन्न मुखों वाले 5151 रुद्राक्षों का समायोजन किया गया है।
गुरु द्रोणाचार्य जुड़ा है इतिहास-
महाभारत युद्ध से पहले गुरु द्रोणाचार्य अनेक स्थानों का भ्रमण करते हुए हिमालय पहुंचे। जहां उन्होंने एक ऋषिराज से पूछा कि उन्हें भगवान शंकर के दर्शन कहां होंगे। मुनि ने उन्हें गंगा और यमुना की जलधारा के बीच बहने वाली तमसा नदी के पास गुफा में जाने का मार्ग बताते हुए कहा कि यहीं स्वयंभू शिवलिंग विराजमान हैं। गुरु द्रोणाचार्य ने यहां घोर तपस्या कर शिव के दर्शन किए तो उन्होंने शिव से धर्नुविद्या का ज्ञान मांगा। एक लोक मान्यता यह भी है कि गुरू द्रोणाचार्य को इसी स्थान पर भगवान शंकर का आर्शीवाद प्राप्त हुआ था। उन्होंने भी यहां छह माह तक एक पैर पर खड़े होकर कठोर साधना की थी।मान्यता यह भी है कि अश्वत्थामा को यहीं भगवान शिव से अमरता का वरदान मिला।
(साभार- पत्रकार, खुशी सिंह की कलम से…)