आंचल चीरे द्रौपदी बांध रही भगवान, प्रेमाचंल में बंध गए वचन दिए फिर आप, इस ऋण के भुगतान को जग ना सकेगा माप…

(वरिष्ठ लेखिका, बीना नयाल की कलम से)

नई दिल्ली: राही मासूम रजा द्वारा लिखित महाभारत के सभी श्लोक मन और मस्तिष्क के तार झंकृत कर देते हैं। कृष्ण भक्त और महाभारत के प्रति विशेष अनुराग होने के कारण यह श्लोक मुझे सर्वाधिक प्रिय है।

शिशुपाल वध के दौरान सुदर्शन चक्र के प्रयोग से जब भगवान श्री कृष्ण की उंगली कट जाती है उसी क्षण द्रौपदी अविलम्ब अपने आंचल का छोर फाड़ती है और श्री कृष्ण की उंगली में बांधती  है उस पल द्रौपदी अबोध शिशु की भांति स्वयं भी नहीं जानती कि उसके द्वारा अनायास किया गया यह कृत्य भगवान को बांध रहा है वैसे भी संसार के समस्त बंधनों में सबसे मजबूत बंधन प्रेम का होता है।

भगवान श्री कृष्ण भी भावुकता में द्रौपदी को वचन देते हैं कि समय आने पर एक एक धागे का  ऋण चुकाऊंगा।

उपरोक्त प्रसंग में द्रौपदी की भगवान कृष्ण के प्रति भक्त के रूप में अनन्य भक्ति सखा के रूप में प्रेम भाव तथा भगिनी का भाई के प्रति स्वभाविक  चिन्ता प्रदर्शित होती है जो वास्तव में प्रेम का सर्वोत्कृष्ट रूप है, जहां प्रेम है समर्पण है विशुद्ध भावना है ,तर्क वितर्क का कोई स्थान नहीं है।

इस नश्वर संसार में जीव व्यवहार करते समय नाना प्रकार के संबंध स्थापित करता है परंतु भौतिक जगत का प्रेम तो जल में चंद्रमा की परछाई के समान है जो कहां किसी को पूर्णता दे पाता है।

वास्तव में जीव का संबंध जब संसार से जुड़ता है तब वह जन्म जन्मांतर तक कर्म बंधन में बंधता चला जाता है परंतु ईश्वर के साथ नित्य प्राप्त संबंध व्यक्ति को  भौतिक जगत के समस्त संबंधों की डोर से स्वतः मुक्त करता जाता है और सुरक्षा भावना भी प्रदान करता है।

भौतिक जगत में प्रेम संबंध कामवासना ,अहंकार ,उम्मीदों से पोषित होने के कारण व्यक्तियों की असीम शक्तियों का नाश करने के साथ उसे शाश्वत आनंद की प्राप्ति में बाधक है जो जीव का प्रकृति प्रदत गुण व प्राकृतिक अधिकार है वही ईश्वर के साथ जैसे-जैसे संबंधों की गहराई समझ में आती है वैसे-वैसे अंतर्निहित शक्तियों के विस्तार के साथ साथ व्यक्ति निर्भय ,प्रेममय निर्विकार तथा जीवन मुक्त होता चला जाता है।

महारथियों से सुसज्जित तथा कुलवधु द्रौपदी के पांच महारथी पतियों की उपस्थिति के बावजूद जब द्रोपदी का वस्त्रहरण का प्रयास किया जा रहा था तब कर्म बंधन के कारण प्रत्येक महारथी की विवशता दृष्टिगोचर थी। परंतु गोविंद के प्रति अनन्य भक्ति, श्रद्धा, प्रेम  और समर्पण की भावना से जब द्रौपदी ने श्रीकृष्ण को पुकारा तो उस सभा में उस इतिहास को बनने से रोक दिया जो कदाचित युगो युगो तक भरतवंश के उजले दामन पर घोर कलंक का टीका प्रतीत होता ।

कलयुग में भी जब भक्त विशुद्ध भावना से गोविंद को पुकारता है तब भगवान किसी न किसी रूप में अवश्य आते हैं इस गूढ़ तत्व को केवल भक्तगण ही समझ सकते है सांसारिक मनुष्यो के लिए तो यह मात्र मानसिक विकार के समान है ।

इसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी की पत्नी रत्नावली ने उन्हें यदि पत्नी के प्रति आसक्ति की उलाहना न  दिया होता तो वे प्रभु भक्ति में न रमे होते और ना ही रामायण जैसै महाकाव्य की रचना होती। कहने का तात्पर्य है जगत में संबंध बनना व विभिन्न आश्रमो  में व्यवहार स्वभाविक है परंतु उनमें अत्यंत आसक्ति ही व्यक्ति का पतन करती है।

वास्तव में जीव का सृष्टि में उद्देश्य कर्म और संबंधों का कुशलता पूर्वक निर्वहन कर प्रेम का प्रवाह ईश्वर की और करना है जो मनुष्य की क्रियाशीलता ,आत्मपरकता रचनात्मकता और अंतर्निहित शक्तियों का विकास कर चिर आनंद की प्राप्ति कराता है और जीते जी मुक्ति का अनुभव कराता है

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