मुख्यमंत्री धामी बोले, ‘वोकल फॉर लोकल’ से ‘वोकल फॉर ग्लोबल’ की ओर बढ़ेंगे हमारे शिल्पी

देहरादून: उत्तराखंड को अपनी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और हस्तशिल्प परंपरा के क्षेत्र में एक अभूतपूर्व सम्मान प्राप्त हुआ है। राष्ट्रीय हथकरघा दिवस 2025 का मुख्य आयोजन इस वर्ष पहली बार देवभूमि उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में होने जा रहा है। यह ऐतिहासिक आयोजन न केवल राज्य के लिए एक प्रतिष्ठा का विषय है, बल्कि देश भर के प्रतिभाशाली शिल्पियों और बुनकरों को एक साझा, सशक्त मंच प्रदान करने का प्रयास भी है।

हर वर्ष 7 अगस्त को मनाया जाने वाला यह दिवस भारत की पारंपरिक बुनाई और हस्तशिल्प कौशल को समर्पित है, जिसमें शिल्पकारों की अनमोल विरासत और उनके अथक योगदान को नमन किया जाता है। इस वर्ष का आयोजन उत्तराखंड के लिए विशेष इसलिए भी है क्योंकि यह पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर यहां आयोजित हो रहा है, जो राज्य के बढ़ते सांस्कृतिक कद का प्रतीक है।

देहरादून के पवेलियन ग्राउंड (संभावित) में 7 अगस्त 2025 को होने वाले इस भव्य समारोह में एक विशाल हस्तशिल्प प्रदर्शनी का आयोजन किया जाएगा, जहाँ देश के कोने-कोने से आए बुनकर अपनी कला का प्रदर्शन करेंगे। इसके साथ ही, लाइव डेमो और विशेष कार्यशालाएं आयोजित की जाएंगी, जिससे आगंतुक पारंपरिक बुनाई की बारीकियों को करीब से समझ सकेंगे। लोक सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ और विशेष रूप से सीमांत क्षेत्रों से आने वाले शिल्पियों का सम्मान समारोह भी इस आयोजन का प्रमुख आकर्षण रहेगा।

इस ऐतिहासिक राज्य स्तरीय भव्य समारोह की अध्यक्षता स्वयं उत्तराखंड के मुख्यमंत्री  पुष्कर सिंह धामी करेंगे, जिनके नेतृत्व में राज्य सांस्कृतिक पुनरुत्थान और आत्मनिर्भरता की दिशा में लगातार सशक्त कदम बढ़ा रहा है।

मुख्यमंत्री धामी ने इस अवसर को उत्तराखंड के लिए ‘स्वर्णिम अवसर’ बताते हुए कहा, “यह केवल एक कार्यक्रम नहीं, बल्कि उत्तराखंड की समृद्ध शिल्प परंपरा को देश और दुनिया के सामने लाने का स्वर्णिम अवसर है। यह आयोजन हमारे मेहनती बुनकरों और कारीगरों को प्रधानमंत्री जी के ‘वोकल फॉर लोकल’ के आह्वान से आगे बढ़कर ‘वोकल फॉर ग्लोबल’ की दिशा में प्रेरित करेगा। हमारी सरकार हस्तशिल्पियों के उत्थान और उनकी कला को वैश्विक पहचान दिलाने के लिए प्रतिबद्ध है।”

यह आयोजन उत्तराखंड की पारंपरिक कला, जैसे कि ऐपण, पिछौड़ा, कढ़ाई, ऊनी वस्त्र, लकड़ी व धातु शिल्प जैसे क्षेत्रों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने में सहायक होगा। साथ ही, सीमांत इलाकों से आने वाले शिल्पियों को उनकी विशिष्ट कला के लिए प्रोत्साहन मिलेगा और उनकी आजीविका को भी बल मिलेगा।

आइए, इस सांस्कृतिक पर्व का हिस्सा बनें और एक साथ मिलकर कहें —
“हमारे हस्तशिल्प में है हमारी पहचान, यही है आत्मनिर्भर भारत की शान!”

 




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